

हरीश शिवनानी
भारतीय राजनीति, साहित्य, संस्कृति और अकादमिक दायरों में जिस पदबंध का प्रयोग जोर-शोर से किया जाता है, वो है- अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता। जितने जोर-शोर से इसे दोहराया जाता है उससे भी दोगुने मौकों पर इसका दुरुपयोग भी उतने ही खुले तौर पर किया जाता है। हालिया एक कॉमेडियन कुणाल कामरा के प्रकरण से ऐसा ही कुछ हुआ जा रहा है। जो लोग यह ‘तर्क’ देते हैं कि अगर आप किसी से असहमत भी हों, तब भी आपको उनके बोलने के अधिकार का समर्थन करना ही चाहिए। ‘फ्रीडम ऑफ स्पीच’ पर तभी प्रश्न उठाए जा सकते हैं जब वह हिंसा फैलाने में सहयोग कर रही हो। कुणाल कामरा ने ऐसा कुछ नहीं किया है। जबकि किसी के ‘बोलने’ इसका व्यावहारिक और तर्कसंगत पहलू भी होना चाहिए कि उसके ‘बोलने’ का वास्तविक मंतव्य, उद्देश्य क्या है। कोई अगर कॉमेडी की आड़ या अन्य किसी भी नजरिए से किसी व्यक्ति, जाति, धर्म, संप्रदाय, समुदाय या किसी भी उद्देश्य से निर्मित समूह के प्रति सार्वजनिक रूप से अभद्र-अशालीन-अमर्यादित भाषा-बोली का प्रयोग कर उसकी मानहानि करते हैं, सामाजिक रूप से अपमानित करते हैं, फूहड़ तरीके से हंसी-मखौल उड़ाते हैं या उसके हितों नुकसान करते हैं तो यह भी उसके प्रति वाचिक हिंसा, सार्वजनिक अपमान करना ही हुआ, इसे स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति, बोलने का अधिकार या लोकतंत्र जा समर्थन तो कतई नहीं कहा-माना जा सकता। कुणाल कामरा ने पिछले दिनों अपने कॉमेडी शो में महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के तरफ संकेत कर जो कुछ कहा है, उसे समझना, उसके निहितार्थ निकालना कोई मुश्किल काम नहीं है। यह महज कॉमेडी नहीं, विशुद्ध रूप से फूहड़ तरीके का राजनीतिक वक्तव्य है, किसी का सार्वजनिक अपमान, उसकी मानहानि है। भारत में दल-बदल कर सत्ता हासिल करने का लंबा राजनीतिक इतिहास रहा है। 1977 और 1979 में हरियाणा में मुख्यमंत्री भजनलाल के समूची कैबिनेट सहित दलबदल करने का इतिहास तो जाना-पहचाना है ही, राजनीतिक मुहावरा ‘आयाराम-गयाराम’ भी हरियाणा के एक विधायक की ही देन है।
अभिव्यक्ति के स्वतंत्रता की आड़ में हमें उन मूल्यों को भी नहीं भूलना चाहिए जो एक सभ्य, सुसंस्कृत, मर्यादित और शिष्ट समाज की बुनियाद होते हैं। इस समाज में अनियंत्रित, निरंकुश कुछ भी नहीं होता। अनुशासन, मर्यादाओं की एक सीमा-रेखा होती है। भारतीय संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अनुच्छेद 19(1)(क) के तहत नागरिकों को दी गई है। हालांकि यह भी असीम नहीं है। इसे अनुच्छेद 19(2) के तहत कुछ उचित प्रतिबंधों के अधीन रखा गया है। हर अभिव्यक्ति के मायने अराजकता नहीं हो सकता। लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए वाचिक और शाब्दिक हिंसा पर भी अंकुश उतना ही जरूरी है जितना दैहिक हिंसा पर।
भारतीय बौद्धिक जगत की दिक्कतें यह भी कम नहीं कि उसकी बौद्धिकता किसी व्यक्ति, समूह, जाति,समुदाय को परखने,उसका मूल्यांकन करने या उसके पक्ष-विपक्ष में खड़े होने के मूल में उसके पैमाने, उसके निकष, मापदंड उसकी विचारधारा के अनुरूप बदलते रहते हैं। इसके मूल में उसकी राजनीतिक विचारधारा, उसकी अपेक्षाएं, उसकी महत्वाकांक्षाएं और उसके निहितार्थ मुख्य भूमिका निभाते हैं। ऐसा ही कामरा के प्रसंग में हुआ है। कला और साहित्य-संस्कृति की स्वायत्तता के स्वयम्भू ठेकेदारों ने अपने स्तर पर एक पैमाना बना रखा है जिससे वे अभियक्ति की आजादी की हद तय करते है। सच यही है कि आज भारतीय बौद्धिक जगत अपनी इस खामोशी की वज़ह ज्यादा अविश्वसनीय और बदनाम है जिसे निर्मल वर्मा ने ‘चुनी हुई चुप्पी’ कहा था, जिसे सामान्यतः ‘सलेक्टिव खामोशी’ कहा जाता है।
ऐसे चुनी हुई चुप्पियों वाले कथित और स्वयंभू बुद्धिजीवियों की अभिव्यक्ति की आज़ादी तब खतरे में नहीं आती जब तस्लीमा नसरीन को बोलने से रोका जाता है, तारेक फतेह के साथ धक्का मुक्की कर जश्ने रेख्ता से बाहर किया जाता है । इस आजादी पर तब भी खतरा नहीं आता जब जेएनयू के वामपंथी योग शिक्षक रामदेव को किसी कार्यक्रम में बुलाने का विरोध कर उनका कार्यक्रम रद्द करवा देते है या नूपुर शर्मा की तथ्यात्मक बात के बावजूद वे चुप्पी धारण कर लेते हैं। यदि कोई अपनी वैचारिकता के निकट है तो गलत होकर भी सही, वरना विरोधी होने पर खामोशी। क्या एक लोकतांत्रिक देश में सेलेक्टिव चुप्पी और सलेक्टिव स्वस्थ प्रवृत्ति है ?
कुणाल कामरा का विवादों से पुराना नाता रहा है। वरिष्ठ पत्रकार अर्नब गोस्वामी से लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के संदर्भ में वो विवादों में रह चुके हैं। नए वीडियो में कामरा ने मुकेश अंबानी के बेटे का उसके वजन के लिए मजाक उड़ाया है। सभी जानते हैं कि अनंत अंबानी को बीमारी की वजह से स्टेरॉइड्स लेने पड़ते हैं। स्टेरॉइड्स के साइड इफेक्ट की वजह से उनका ये वजन बढ़ा हुआ है। यानी बीमारी की वजह से अनंत अंबानी की ये हालत है और कोई उसका मजाक उड़ा रहा है तो ये कुछ भी हो सकता है, कॉमेडी तो नहीं।
वास्तविकता यह है कि आज के दौर में जब कॉमेडियन का मार्केट ठंडा हो जाता है तब वापस मार्केट में चर्चा में आने के लिए धर्म, राजनीतिक, जाति आदि विषयों पर निजी रूप से व्यंग्य करते हैं ताकि विवाद हो और वह फिर चर्चा में आ जाएं। पैसे और चर्चा में बने रहने के लिए उनका एक तरह का पेशा है। इसे आप इस प्रकरण से भी समझ सकते हैं कि इस विवाद के बाद ‘सुपर थैंक्यू’ के नाम पर कामरा को दो दिन में ही लाखों रुपये की फंडिंग हो चुकी है।
कहने को विदेशी सिनेमा या सीरीज में देशज शब्दों की भरमार होती है। ऑस्कर पाने वाली ‘अनोरा’ में एक गाली का प्रयोग सैकड़ों बार हुआ। मार्टिन स्कोर्सेसी जैसे बड़े फिल्मकार ने भी ‘द वुल्फ ऑफ वॉल स्ट्रीट’ में भी एक यौन शब्द का इस्तेमाल सैकड़ों बार किया। किसी रचना, चाहे वो फिल्म हो या किताब, उसमें अगर गाली या कथा या पात्रों के स्तर के अनुसार गालियों या किसी देशज किस्म की भदेस भाषा का प्रोयग होता है तो उसे रचनात्मक अनिवार्यता कही जा सकती है, राही मासूम रजा के ‘आधा गांव’ या काशीनाथ सिंह की ‘अस्सी जा अस्सी’ कृति-फिल्म लेकिन आज के दौर में जब ‘स्टैंडिंग कॉमेडी’ के नाम जो छिछोरापन परोसा जाता है, वह अस्वीकार्य है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता किसी को कुछ भी करने की इजाजत नहीं दे सकती। गाली गलौज, मानहानि, अभद्र भाषा, सार्वजनिक छीछालेदर को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं कहना चाहिए। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मर्यादित बोध से होनी चाहिए।
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)