एक बार स्वयं की एकमात्र धर्मपत्नी जी के परम प्रिय दादाजी के जन्मदिवस पर ‘ससुराल गेंदा फूल’ जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वहां अलसायी भोर की बेला में चाय की चुस्कियों का आनंद लेते हुए अचानक अखबार की एक खबर पर नजर पड़ी। जांजगीर जिले के स्थानीय पृष्ठ पर एक समाचार छपा था। खबर भी कोई आम नहीं थी। पढ़ने पर पता चला खबर तो बेशक आम नहीं थी, पर राष्ट्रीय फल ‘आम’ के बारे में थी। ‘आम’ भी कोई आम ‘आम’ नहीं खास था। पूरे एक लाख रूपए किलो वाला ‘आम’। उत्सुकता में पूरी खबर पढ़ डाली और सोचमग्न भी हुए कि इतनी महँगा आम खरीदेगा कौन? अकबर इलाहाबादी का शेर याद आ गया ‘नाम न कोई यार को पैगाम भेजिए, इस फस्ल में जो भेजिए, बस आम भेजिए। इसी उधेड़बुन में लगे हुए सोचा थोडा सुबह की सैर का आनंद ले लिया जाये। तो हम पहुँच गए ‘भीमा तालाब’ जो आजकल जांजगीर बस्ती में नवनिर्मित पर्यटन सह-व्यायाम शाला बना हुआ है। यहाँ भांति-भांति के चौपाल का सुबह शाम मेला लगा रहता है। हम भी टहलते-टहलते ऐसे ही एक चौपाल के करीब में गुजर रहे थे। हमारे कदम ठिठक गए और हम उनकी बात सुनने लगे। ये क्या पांच छह शेखचिल्ली मिलकर आम के गुठली की जुगाड़ पर बातचीत कर रहे थे। अगर एक भी गुठली मिल जाए तो हम उसका पेड़ उगाकर मालामाल हो सकते है। हम भी कान दे दिए। उन्होंने योजना बनाई कि जिस दिन बाजार में आम की पहली फसल आयेगी, उसी दिन से रोज उस पर नजर रखी जाएगी। जो भी व्यक्ति उस आम को खरीदेगा उसका पीछा कर आम की गुठली प्राप्त कर ली जाएगी और फिर उसको उगाया जायेगा। पूरी तैयारी के बाद अब सब लोग मिलकर आम के बाजार में आने का इंतज़ार करने लगे। जिस दिन का ‘शेखचिल्ली गिरोह’ को इंतज़ार था, वो दिन भी आ गया। आमवाला किसान अपनी आम की टोकरी लेकर बाजार में ग्राहक का इंतज़ार करने लगा। उसने दुकान के बाहर एक निर्देश पट्टिका लगवाई ‘यह आम रास्ता नहीं है, कृपया आम आदमी दफा हो जाए’। शेखचिल्ली गिरोह भी छिपकर इंतज़ार करने लगा। दिन गुजरने लगे। गाड़ियों में लोग आते, दाम पूछते और चले जाते। यही सिलसिला कई दिनों तक चलता रहा। पर आम का खरीददार नही आया।
फिर एक दिन एक चमचमाती कार आकर रुकी और उसके मालिक ने एक किलो आम खरीद लिया। शेखचिल्ली गिरोह की बांछे खिल गई और सब लोग उस गाड़ी का पीछा करने लगे। गाड़ी एक बड़े से बंगले में जाकर रुकी। अब सब सोच में पड़ गए कि इतने बड़े किलानुमा बंगला, जो चारदीवारी से घिरा है, उसमे से आम की गुठली कैसे मिलेगी? गिरोह को एक तरकीब सूझ ही गई, इन्होने बंगले के नौकर रामू को अपने साथ कर लिया और उसे गुठली देने के लिए राजी कर लिया।
वे रोज कचरा फेकनें का इंतज़ार करने लगे और इसके लिए उन्होंने कचरा गाड़ी वाले को भी पटा लिया। कचरा गाड़ी वाले को प्रतिदिन अपने कचरा को दिखाने का 50/- देने लगे पर कचरा से कई दिनों बाद भी गुठली नहीं मिली। वे सभी अब निराश होने लगे। रामू भी रोज निगरानी करने लगा। पर उसे भी कचरे में या घर में कहीं भी आम-ए-खास की गुठली नजर नहीं आई। बहुत दिनों बाद एक दिन रामू ने शेखचिल्ली गिरोह को बताया कि मालिक ने उस गुठली को उसी आम वाले को दस हजार में बेच दिया। सभी शेखचिल्ली हक्का बक्का होकर आपस में कानाफूसी करने लगे और अंत में गाना गाते अपने घर को चले ‘क्यों तुझ संग प्रीत लगाई बेवफा आम-ए-खास ……
बहरहाल अगले दिन के अखबार की ब्रेकिंग न्यूज यह थी कि दाम के चलते खास लोगों की पहुँच तक ही सिमट गया है आम -ए – खास।
लोकमनी यादव
सहायक प्राध्यापक (समाजशास्त्र)
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