
मुंबई में मराठा आरक्षण की गूंज: आज़ाद मैदान से आर-पार की लड़ाई!
Thank you for reading this post, don't forget to subscribe!आरक्षण के बिना वापसी नहीं: मनोज जरांगे का अनशन जारी-मुंबई का आज़ाद मैदान पिछले तीन दिनों से एक अलग ही रंग में रंगा हुआ है। यहाँ मनोज जरांगे, मराठा समुदाय के हक़ के लिए डटकर खड़े हैं और उन्होंने भूख हड़ताल शुरू कर दी है। उनका सीधा कहना है कि जब तक मराठाओं को उनका हक़, यानी आरक्षण, नहीं मिल जाता, तब तक वो यहाँ से टस से मस नहीं होंगे। ये सिर्फ मनोज जरांगे की लड़ाई नहीं रही, बल्कि अब ये पूरे मराठा समाज की आवाज़ बन गई है। जरांगे का दावा है कि सरकार के पास खुद ऐसे सबूत हैं जो ये साबित करते हैं कि कुनबी और मराठा असल में एक ही हैं। इसी बात को आधार बनाकर वो 10% आरक्षण की मांग कर रहे हैं। इस आंदोलन की वजह से आज़ाद मैदान और छत्रपति शिवाजी महाराज टर्मिनस (CSMT) के आसपास लोगों की भारी भीड़ जमा हो गई है, जिसका असर ट्रैफिक पर भी साफ दिख रहा है। मुंबई पुलिस बार-बार लोगों से अपील कर रही है कि वो दूसरे रास्तों का इस्तेमाल करें। लेकिन जरांगे के समर्थक इस भीड़ को सिर्फ भीड़ नहीं, बल्कि अपने हक़ और इंसाफ के लिए उम्मीद लेकर आए लोगों का सैलाब बता रहे हैं। मनोज जरांगे ने तो यहाँ तक कह दिया है कि वो अब पानी भी त्याग देंगे, क्योंकि उनके लिए यह लड़ाई अब ‘आखिरी जंग’ बन चुकी है।
आरक्षण का पेंच: मराठा बनाम ओबीसी, असली मुद्दा क्या है?-इस पूरे मामले की जड़ें आरक्षण के इर्द-गिर्द घूमती हैं, और यहीं सबसे बड़ा सवाल खड़ा होता है। मनोज जरांगे की सबसे बड़ी मांग यही है कि मराठा समुदाय को ‘कुनबी’ माना जाए और इसी आधार पर उन्हें ओबीसी आरक्षण का लाभ मिले। अगर ऐसा हो जाता है, तो सरकारी नौकरियों और शिक्षा के क्षेत्र में मराठा समाज को काफी फायदा होगा। लेकिन, दूसरी तरफ ओबीसी समुदाय इस मांग का पुरजोर विरोध कर रहा है। उन्हें डर है कि अगर मराठाओं को ओबीसी में शामिल किया गया, तो उनके आरक्षण का हिस्सा कम हो जाएगा और उनका हक़ मारा जाएगा। जरांगे का कहना है कि सरकार के पास पहले से ही 58 लाख मराठाओं के कुनबी होने के रिकॉर्ड मौजूद हैं। उनका मानना है कि अगर संविधान की सीमाओं का ध्यान रखा जाए, तो मराठाओं को ओबीसी श्रेणी में शामिल करना नामुमकिन नहीं है। लेकिन, इन सब के बीच जो राजनीतिक दांव-पेंच चल रहे हैं, वो इस मुद्दे को और भी उलझा रहे हैं। जहाँ बीजेपी और राज्य सरकार बार-बार ये भरोसा दिला रही है कि इस मसले का हल निकाला जाएगा, वहीं जरांगे का रुख एकदम साफ है – उन्हें सिर्फ वादों से मतलब नहीं है। जब तक सरकार ठोस कदम उठाकर कोई सरकारी आदेश (GR) जारी नहीं करती, तब तक उनका आंदोलन ऐसे ही चलता रहेगा।
सियासी बयानबाजी और जरांगे का कड़ा रुख-इस आंदोलन ने महाराष्ट्र की राजनीति में भी हलचल मचा दी है। जहाँ एक तरफ राज ठाकरे ने उपमुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे से सवाल उठाया है कि जो मुद्दा वो पहले सुलझा चुके थे, वो फिर से कैसे खड़ा हो गया? वहीं, मनोज जरांगे ने राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे, दोनों को ‘अच्छे इंसान’ तो कहा, लेकिन साथ ही ये भी इशारा किया कि राज ठाकरे दूसरों की बातों में आसानी से आ जाते हैं। जरांगे ने सीधे तौर पर देवेंद्र फडणवीस पर भी निशाना साधा है। उनका आरोप है कि फडणवीस इस मुद्दे को गंभीरता से हल करना ही नहीं चाहते। जरांगे ने तो यहाँ तक कह दिया कि पिछली बार अमित ठाकरे की हार में भी फडणवीस का हाथ था। सरकार की ओर से इस मामले को सुलझाने के लिए एक समिति भी बनाई गई है, जिसका नेतृत्व रिटायर्ड जज संदीप शिंदे कर रहे हैं। लेकिन, मनोज जरांगे ने इस समिति को भी सिरे से खारिज कर दिया है। उनका कहना है कि जज का काम आरक्षण का आदेश जारी करना नहीं होता। उनका सीधा और स्पष्ट संदेश है कि उन्हें अब किसी रिपोर्ट का इंतज़ार नहीं, बल्कि सीधे कानून चाहिए।
‘आखिरी लड़ाई’ का ऐलान: क्या मराठा आंदोलन नई मंज़िल की ओर?-मनोज जरांगे का कहना है कि यह आंदोलन अब मराठा समुदाय की ‘आखिरी लड़ाई’ है। वो पहले भी सात बार भूख हड़ताल कर चुके हैं, लेकिन इस बार उन्होंने साफ कर दिया है कि वो पीछे हटने वाले नहीं हैं। उनका मानना है कि अब वो समय आ गया है जब मराठवाड़ा के मराठाओं को ‘कुनबी’ घोषित करके उन्हें आरक्षण का हक़ दिया जाना चाहिए। इस आंदोलन का तरीका भी अब बदलता हुआ नज़र आ रहा है। समर्थकों को हिदायत दी गई है कि वो अपनी गाड़ियाँ तय जगहों पर पार्क करें और ट्रेन से आज़ाद मैदान तक पहुँचें। आंदोलनकारी ट्रकों में भरकर लाया गया खाना अलग-अलग जगहों पर बाँट रहे हैं और फिर आज़ाद मैदान में इकट्ठा हो रहे हैं। जरांगे के लिए यह सिर्फ आरक्षण की लड़ाई नहीं, बल्कि मराठा समाज के ‘सम्मान’ की जंग है। मुंबई में लगातार बढ़ती भीड़ और बढ़ता राजनीतिक दबाव यह साफ इशारा कर रहा है कि आने वाले दिनों में यह आंदोलन और भी बड़ा रूप ले सकता है। अब देखना यह है कि सरकार इस मांग को मानकर कोई समाधान निकालती है, या फिर यह आंदोलन और भी ज़्यादा उग्र हो जाता है।

