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गठबंधन में अकेली होती कांग्रेस

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सुरेश हिंदुस्तानी

भारत की राजनीति निश्चित ही अनिश्चितता का एक ऐसा खेल है, जिसका सीधा-सा आशय नहीं निकाल सकता। यानी जो दिखता है, वैसा होता नहीं है और जो हो जाता है, वह दिखता नहीं है। इसी कारण से कभी-कभी राजनीति से अविश्वास भी होने लगता है। यह अविश्वास केवल जनता के मन में उपजता है, ऐसा नहीं है, राजनीति के ज्ञाता भी इसकी परिधि में गाहे-बगाहे आ जाते हैं।

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आज के दौर में कांग्रेस के प्रति भी अविश्वास का भाव लगातार बढ़ता जा रहा है। वर्तमान केंद्र सरकार पर निरंतर हमालवर रहने वाले इंडी गठबंधन के राजनीतिक दल आज स्वयं के लिए अलग मार्ग तलाशते दिख रहे हैं। कोई दल कांग्रेस को भाव देने को तैयार नहीं है, लेकिन समस्या यह है कि कांग्रेस आज भी इस सच को आईने में देखने को तैयार नहीं है। आज कांग्रेस की सच्चाई यही है कि उसे अपनी विरासत पर ही भरोसा है, इसके अलावा अन्य राजनेता भले ही बड़े पद पर पहुँच जाएं, उन्हें जितना महत्व मिलना चाहिए उतना मिलता नहीं है। वर्तमान में कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे कमोबेश ऐसी ही स्थिति का सामना कर रहे हैं। वे सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा के समक्ष लगभग नतमस्तक से दिखाई देते हैं।

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पिछले लोकसभा चुनाव के नतीजे को कांग्रेस भले अपने लिए सफलता माने लेकिन वह सफलता इसलिए नहीं मानी जा सकती, क्योंकि यह कांग्रेस की स्वयं की राजनीतिक ताकत नहीं थी, इसमें इंडी गठबंधन के दलों का योगदान था। लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश के नतीजों में विपक्षी दलों को निश्चित ही अपेक्षित सफलता मिली, लेकिन इसे कांग्रेस की सफलता नहीं माना जा सकता। अगर कांग्रेस के साथ समाजवादी पार्टी नहीं होती तो कांग्रेस की इतनी सीटें नहीं आती। सत्य यही है कि आज कांग्रेस बिना गठबंधन के आगे बढ़ नहीं सकती लेकिन कांग्रेस के नेताओं का व्यवहार ऐसा है कि वही सबका नेतृत्व कर रहे हैं, जबकि वास्तविकता में ऐसा नहीं है। इसी कारण इंडी गठबंधन में दरार पैदा करने वाले स्वर भी सुनाई देने लगे हैं।

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राजनीतिक आकलन किया जाए तो इन स्वरों के यही निहितार्थ निकल सकते हैं कि कांग्रेस के पास इंडी गठबंधन को नेतृत्व देने का सामर्थ्य नहीं है। पश्चिम बंगाल में अपने राजनीतिक कौशल का लगातार परिचय देने वाली तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी इंडी गठबंधन का नेतृत्व करने के लिए व्याकुल दिखाई दे रही हैं। ममता बनर्जी की राजनीति को देखते हुए यही कहा जा सकता है कि वे किसी और के नेतृत्व में काम करने के लिए सहज नहीं हैं। इसलिए उन्होंने यह स्वयं ही कहा है कि अगर कांग्रेस चाहे तो तृणमूल कांग्रेस गठबंधन का नेतृत्व करने के लिए तैयार है। इसका आशय पूरी तरह से स्पष्ट है कि कांग्रेस में अब नेतृत्व करने की शक्ति नहीं बची है। हर जगह से कांग्रेस को आईना दिखाने का क्रम प्रारम्भ हो चुका है, लेकिन कांग्रेस में तो केवल और केवल इसी बात की राजनीति की जा रही है कि राहुल और प्रियंका को कैसे स्थापित किया जाए। इसी के चलते कांग्रेस अन्य दलों की लगभग अनदेखी-सी करने का प्रयास कर रही है।

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कांग्रेस अनेक बार उत्थान और पतन की राजनीति से गुजरी है। लगातार तीन लोकसभा चुनावों में पराजय का दंश झेलने वाली कांग्रेस की विसंगति यही है कि वह केवल विरोध करने की राजनीति ही कर रही है। कांग्रेस के नेताओं का हर बयान मोदी या भाजपा तक ही सीमित है। यह अब कांग्रेस का स्थायी भाव सा बन गया है। इसका मतलब यह भी निकल सकता है कि उनके पास स्वयं की ऐसी कोई उपलब्धि नहीं है, जिसके आधार पर राजनीति की जा सके। अभी हाल ही में प्रियंका वाड्रा ने संसद में कांग्रेस का रटा-रटाया बयान दिया, जिसमें उन्होंने कहा कि मोदी सरकार संविधान बदलना चाहती है। इसमें कितनी सच्चाई है, यह तो राजनीति करने वाले जानते ही हैं, लेकिन ऐसे बयान इसलिए भी उचित नहीं कहे जा सकते क्योंकि यह बयान अनुमान पर ही आधारित हैं। यह बयान ठोस नहीं हैं। ऐसे बयानों का मतलब सबको समझ में भी आने लगा है। कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि कांग्रेस की राजनीति आधारहीन होती जा रही है। वास्तव में कांग्रेस को अब समय के हिसाब से प्रासंगिक होना चाहिए। प्रासंगिकता के अभाव में कांग्रेस को अब वैसा भाव नहीं मिल रहा, जैसा कांग्रेस को चाहिए।

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अभी हाल ही महाराष्ट्र और झारखण्ड में विधानसभा के चुनाव हुए। जिसमें कांग्रेस को जैसे प्रदर्शन की उम्मीद थी, वैसा परिणाम नहीं रहा। झारखण्ड में गठबंधन को सफलता जरूर मिली, लेकिन इसे कांग्रेस की सफलता नहीं माना जा सकता। महाराष्ट्र में कांग्रेस को बेमेल गठबंधन ले डूबा। यहां भी फजीहत कांग्रेस की हुई। कांग्रेस के समक्ष हालात यह होते जा रहे हैं कि उसे अब तिनके की तलाश करनी पड़ रही है। देश के कई राज्यों में कांग्रेस अपने बूते चुनाव लड़ने की स्थिति में नहीं है।

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जहाँ अकेले चलने का प्रयास किया, वहां धड़ाम से नीचे गिर गई। लगातार झटके खाने की आदी होती जा रही कांग्रेस को एक झटका दिल्ली में मिला है। आम आदमी पार्टी के नेता अरविन्द केजरीवाल ने कांग्रेस से दूरी बनाकर यह संकेत दे दिया है कि कांग्रेस का वजूद क्या है। इसके बाद कांग्रेस को स्वयं का आकलन करना चाहिए। लेकिन कांग्रेस ऐसा करने को तैयार नहीं दिखती।

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कांग्रेस की वर्तमान राजनीतिक स्थिति को देखकर यही कहा जा सकता है कि वह अब इंडी गठबंधन में अलग होती जा रही। कांग्रेस को उसके सहयोगी राजनीतिक दल ही किसी प्रकार का भाव देने की स्थिति में नहीं है। इसलिए कांग्रेस को चाहिए कि वह अपने आपको पिछलग्गू बनने की बजाय ठोस धरातल बनाने की राजनीति करे, नहीं तो एक दिन ऐसा भी आ सकता है कि कांग्रेस को राजनीतिक दल ही नहीं, जनता भी नहीं पूछेगी।

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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