
“हज़ारों जवाबों से अच्छी है मेरी ख़ामोशी, न जाने कितने सवालों की आबरू रखी।”

अपनी इसी ख़ामोशी के साथ 26 दिसम्बर, 2024 को फेफड़े में गम्भीर संक्रमण के कारण 92 वर्ष की आयु में रात्रि 9 बजकर 51 मिनट में पूर्व प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह इस असार संसार का त्याग कर चुके थे। उनके शरीरान्त के पश्चात् उनकी वही ‘ख़ामोशी’ इन दिनों मुखर होकर सबको बेचैन कर रही है। डॉ. सिंह ने दस वर्षों के अपने प्रधानमन्त्रित्व काल में ‘देशहित’ को सर्वोपरि रखा। उन्होंने कभी प्रधानमन्त्री पद पाने की चाह भी व्यक्त नहीं की थी; काँग्रेस नेतृत्व ने खुद उनसे प्रधानमन्त्री पद स्वीकार करने का आग्रह किया था।
वे वाचाल नहीं थे; आत्मप्रशंसक भी नहीं थे; सत्तालोलुप नहीं थे; विपक्षी दलों के लिए कभी अपशब्द का प्रयोग नहीं करते थे। सच तो यह है कि उन्होंने किसी नेता-नेत्री को आरोपित तक नहीं किया। वे न तो भाषणों में जोश दिखाते थे और न ही किसी विवाद को जन्म देते थे। वास्तव में, उनका काम ही उनकी पहचान थी। उनके चरित्र की सबसे बड़ी विशेषता थी कि वे जो भी करते थे, शालीनता के साथ। उन जैसा व्यावहारिक भारतीय अर्थशास्त्री न कल था और न ही आज है; भविष्य में भी कोई नज़र नहीं आ रहा। डॉ. मनमोहन सिंह जैसा सुशिक्षित एवं अनुभव सम्पन्न प्रधानमन्त्री आज़ादी के बाद से आज तक कोई नहीं हुआ। उनका अर्थबोध अद्वितीय रहा है। हम यदि उसके क्रम को समझें तो वे अर्थशास्त्र में वरिष्ठ व्याख्याता, उपाचार्य (रीडर), प्राध्यापक थे। वे संयुक्त राष्ट्र-व्यापार एवं विकास-सम्मेलन (अंकटाड– यूएनसीटीएडी) में भी सक्रिय थे। भारतीय रिज़र्व बैंक के निदेशक तथा गवर्नर, भारतीय औद्योगिक विकास बैंक के निदेशक, योजना आयोग के उपाध्यक्ष, दक्षिण आयोग के महासचिव, विदेश व्यापार मन्त्रालय के सलाहकार, ‘दिल्ली स्कूल ऑफ इकॉनमिक्स’ अन्तरराष्ट्रीय व्यापार के प्राध्यापक, वित्त मन्त्रालय के मुख्य आर्थिक सलाहकार रहे। यही कारण था कि वे विषम आर्थिक परिस्थितियों को भी अपनी कुशाग्र बुद्धिमत्ता का परिचय देते हुए अपने अनुकूल कर लेते थे।
हमें वर्ष 1991 का वह समय स्मरण रखना होगा, जब विश्व गम्भीर आर्थिक संकट के दौर गुजर रहा था। वैसी विषम परिस्थिति में पीवी नरसिम्हा राव के प्रधानमन्त्रित्व काल में डॉ. मनमोहन सिंह को वित्तमन्त्री बनाया गया। उस समय भारत का विदेशी मुद्रा भण्डार रिक्त हो चुका था; देश पर अत्यधिक ऋण का दबाव था। ऐसे में, उनकी तीन आर्थिक नीतियों– (1) उदारीकरण (2) निजीकरण (3) वैश्विकरण ने भारतीय अर्थव्यवस्था को नयी सकारात्मक ऊर्जा से भर दिया। उन्होंने अपनी सुशिक्षा और अनुभव के बल पर भारतीय अर्थव्यवस्था में अभिनव युग की शुरुआत की। उनकी आर्थिक उदारीकरण की नीति ‘मील का पत्थर’ साबित हुई, जिसके अन्तर्गत उन्होंने व्यापार, उद्योग तथा निवेश के क्षेत्रों में लोकोपयोगी सुधार किये थे, जिससे भारत को वैश्विक अर्थतन्त्र के साथ जोड़ने मे सहायता मिली। उन्होंने ही शासकीय उद्यमों को निजी क्षेत्र के लिए खोलने की शुरुआत की। निजीकरण के साथ विदेशी निवेश को भी प्रोत्साहित करने का श्रेय उन्हें जाता है। उन्होंने विदेशी कम्पनियों को भारत में निवेश के लिए आकर्षित किया। उनकी नीतियों का ही परिणाम था कि सूझबूझ एवं दूरदर्शिता के साथ उन्होंने कई दशक से भारतीय अर्थव्यवस्था में सुस्त वृद्धि और भ्रष्टाचार के स्रोत ‘लाइसेंस-परमिट राज’ को समाप्त कर दिया था; कर (टैक्स) कम कर दिये थे। यही कारण था कि उनके वित्तमन्त्रित्व-काल में भारत की आर्थिक दशा-दिशा पूर्णत: स्वस्थ एवं समृद्धि रही।
अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अपनी कृति ‘ए प्रामिस्ड लैण्ड’ में डॉ. मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियों की सराहना करते हुए लिखा था– वर्ष 1990 के बाद वे लगातार भारत की सुदृढ़ अर्थव्यवस्था बनाने में तत्पर और सन्नद्ध रहे। वे भारतीय अर्थव्यवस्था को ऊँचाई पर ले जाने वाले प्रमुख शिल्पी बने।
डॉ. मनमोहन सिंह वर्ष 2004 से 2014 तक भारत के प्रधानमन्त्री बने रहे। उन्होंने अपने उन दस वर्षों के कार्यकाल में कभी अवकाश नहीं लिया, सिवाय वर्ष 2009 में जब उन्हें बाईपास सर्जरी करानी पड़ी थी। वे प्रतिदिन 18 घण्टे क्रियाशील थे। बताया जाता है कि वे प्रतिदिन 300 फ़ाइलों का परीक्षण करते थे।
डॉ. सिंह भारत के ऐसे प्रधानमन्त्री थे जो पं. जवाहरलाल नेहरू के बाद पूरे पाँच वर्षों का कार्यकाल पूर्ण करने के बाद दोबारा प्रधानमंत्री बने। उनके कार्यकाल में शिक्षा के क्षेत्र में कई क्रान्तिकारी सुधार किये गये थे। उन्होंने ‘शिक्षा का अधिकार-अधिनियम’ लागू किया था, जिसके अन्तर्गत छह से चौदह वर्ष की बालक-बालिकाओं के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा की गारंटी दी गयी थी। हमें भूलना नहीं होगा कि डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए सरकार ने वर्ष 2006 में ‘मनरेगा’ (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारण्टी-अधिनियम) को लागू किया था, जिसमें ग्रामीण भारत के निर्धन परिवार को 100 दिनों के रोजगार देने की व्यवस्था रही। उनके कार्यकाल में भारत ने सूचना-प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में वैश्विक स्तर पर अपनी पहचान बनायी। बीपीओ और आइटी उद्योग ने लाखों युवाओं के लिए रोजगार के अवसर उत्पन्न किये थे। टेलीकॉम-क्षेत्र में कराये गये सुधार ने देश के कोने-कोने में मोबाइल और इंटरनेट कनेक्टिविटी का विस्तार किया।
डॉ. मनमोहन सिंह की दूरदर्शिता तब और मुखर रूप में सामने आई जब वर्ष 2008 में भारत-अमेरिका का परमाणु-समझौता हुआ था, जो भारत को असैनिक परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम था। इसके द्वारा देश में ऊर्जा-संकट कम करने और स्वच्छ ऊर्जा को बढ़ावा देने की नींव रखी गयी थी, हालांकि उस समझौते को लेकर तत्कालीन प्रतिपक्षी नेताओं ने विरोध भी किया, फिर भी डॉ. मनमोहन सिंह अपने निर्णय पर अटल बने रहे।
हम डॉ. मनमोहन सिंह को दूरदर्शी प्रधानमन्त्री क्यों विश्लेषित करते आ रहे हैं? इसका उत्तर साफ है कि वे प्रधानमन्त्री-पद की कुर्सी से चिपके रहना नहीं चाहते थे। उन्होंने तो वर्ष २०१४ मे सुस्पष्ट शब्दों में कह दिया था, “मैं तीसरी बार प्रधानमन्त्री नहीं बनूँगा। इतिहास मेरे साथ ‘समकालीन मीडिया’ और ‘विपक्ष’ से ज़्यादा इंसाफ़ करेगा।”
आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)