Join us?

लेख
Trending

महालक्ष्मी नमोस्तुते!

दीपावली के अवसर पर विशेष

गिरीश्वर मिश्र

इस क्षण भंगुर संसार में उन्नति और अभिवृद्धि सभी को प्रिय है। यह बात भी बहुत हद तक सही है कि इसका सीधा रिश्ता वित्तीय अवस्था से होता है। पर्याप्त आर्थिक संसाधन के बिना किसी को इच्छित सिद्धि नहीं मिल सकती। लोक की रीति को ध्यान में रखते कभी भर्तृहरि ने अपने नीति शतक में कहा था कि सभी गुण कंचन अर्थात् धन में ही समाए हुए हैं। धनी व्यक्ति की ही पूछ होती है, वही कुलीन और सुंदर कहा जाता है, वही वक्ता और गुणवान होता है, उसी की विद्वान के रूप में प्रतिष्ठा मिलती है। इसलिए जीवन में सभी इसी का उद्यम करते रहते हैं कि आर्थिक समृद्धि निरंतर बढ़ती रहे।

दीपावली का त्योहार अब सम्पत्ति और वैभव का उत्सव होता जा रहा है। वह अपनी सांस्कृतिक यात्रा में पौराणिक अतीत से आगे बढ़ कर धन-सम्पदा के समारोह में तब्दील होता गया है। कृषि जीवन, ऋतु-परिवर्तन और मर्यादा पुरुषोत्तम राम के स्वागत से अलग छिटकते उत्सव वैभव के प्रतीकों से जुड़ते जा रहे हैं। लक्ष्मी-गणेश की शुभ मुहूर्त में पूजा और घर में दीप जलाने के आयोजन के साथ कई अर्थहीन मिथक भी जुड़ गए हैं। उदाहरण के लिए इस दिन जुआ खेलना बहुतों का एक अनिवार्य अभ्यास हो चुका है। आज का मनुष्य अधिकाधिक लक्ष्मीप्रिय होता जा रहा है। अब उसे सिर्फ धन-संपदा से मतलब है, वह चाहे किसी भी तरह क्यों न प्राप्त हो।

यह मान कर कि अंतिम परिणाम ही महत्व का होता है, लोगों के मन में अब सिर्फ साध्य की ही चिंता बनी रहती है। साध्य या लक्ष्य को पाने के साधन या उपाय की चिंता कोई मायने नहीं रखती है। आज क़िस्म-क़िस्म के झूठ-फ़रेब के जरिए कमाई के उपाय अजमाने से कोई नहीं हिचकता। नीट, कैट तथा नेट आदि प्रतियोगी परीक्षाओं में पेपर लीक के रैकेट शार्टकट से लक्ष्य पाने की युक्ति की ही भ्रष्टाचार-गाथा कहते हैं। धर्म के विचार से आगे बढ़ते हुए आदमी सभी चीजों से निरपेक्ष होता जा रहा है। अब वित्त की अपरिमित चाहत के आगे धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य और उचित-अनुचित के सरोकार अप्रासंगिक इसलिए बेमतलब होते जा रहे हैं। लोक प्रसिद्धि है कि ‘कनक’ (स्वर्ण) पाने भर से आदमी मदमत्त हो उठता है, होशो-हवास खोने लगता है, उसका विवेक मर जाता है और फिर वह अपनी मर्ज़ी से कुछ भी करने पर उतारू हो उठता है।

वैभवशाली युवा आए दिन अपने नए निराले व्यसनों से अख़बारों की सुर्ख़ियाँ बनाते हैं। धनाढ्य युवा फ़र्राटे से बड़ी बड़ी मोटर गाड़ी चलाते लोगों को कुचल देते हैं। कोई उनकी बात न सुने तो मारपीट पर उतर जाते हैं और बिना सोचे सामने वाले को गोली मार देने तक में नहीं हिचकिचाते। द्वंद्वों से परे होती जा रही है धन की लालसा और वैभव का अहंकार। मौजूदा दौर में भौतिक सम्पदा पाने की बेइंतहा लालसा तेज़ी से बढ़ रही है। इसके लिए व्यग्र बेचैन लोग कुछ भी करने पर उतारू रहते हैं। उन्हें इसकी तनिक भी फ़िक्र नहीं होती कि उन्हीं जैसे और लोगों को, उस समुदाय को जिसके वे सदस्य हैं या फिर वह समाज जो उनको जीने के साधन और अवसर मुहैया करा रहा है, सबको, उनके निजी अनियंत्रित आचरण का कितना बेधक ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ रहा है। कहना न होगा कि यह समाजद्रोही आत्मरति व्यापक तौर पर जीवनद्रोही और हिंसक हो कर मनुष्यता के लिए गंभीर ख़तरा बनती जा रही है। लोग अपने पास-पड़ोस की धन-सम्पत्ति पर क़ब्ज़ा जमाने की प्रवृत्ति के साथ चोरी, बेईमानी, धोखाधड़ी और उपद्रव आदि से कोई परहेज नहीं करते। सम्पत्ति को लेकर सगे-सम्बन्धियों को सताने, उनकी पिटाई और हत्या की घटनाएँ तो आम होती जा रही हैं। ऐसे लोग धन के लालच में परिजनों की हत्या और अपने संतान की बलि तक दे रहे हैं। यह बड़े खेद का विषय है कि इस तरह की अमानवीय घटनाएँ सार्वजनिक जीवन में फैल रही हैं।

अर्थ-प्रियता की प्रवृत्ति के ही चलते सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन में बेईमानी और भ्रष्टाचार का लम्बा सिलसिला चल निकला। अब अर्थ का कारोबार प्रकट और प्रच्छन्न तरीके से छल-छद्म के तमाम पैंतरों के साथ खूब फल-फूल रहा है। छोटे तबके के लोगों से लेकर ऊँचे और जिम्मेदार पदों पर आसीन रसूखदार बड़े-बड़े लोगों की भी उसमें हिस्सेदारी सामने आ रही है। दरअसल, ऐसा दुराचार का दायरा स्वतंत्र भारत में लगातार बढ़ता गया है और नियम, क़ानून, निगरानी और संहिताएँ ज़्यादा प्रभावी नहीं हो पा रही हैं। इस तरह के प्रकरणों में अपराध और अपराधी तय करना और क़ानूनी प्रक्रिया द्वारा अपराधी को सजा दिलाना टेढ़ी खीर साबित हो रही है। कई लोग तो अपने विरोधी को डराने के लिए यह धमकी देते फिरते हैं कि ‘तुमको कोर्ट में घसीटेंगे।’ यह अलग बात है कि कोर्ट में ज़्यादातर प्रकरण सालों-साल चलते रहे हैं और कई बार फलहीन साबित होते हैं। क़ानूनी प्रक्रिया उलझाऊ, जटिल और उबाऊ हो चुकी है हर भला आदमी उससे दूर रहना चाहता है। । तिसपर से उसमें छोटे-बड़े इतने छेद हैं कि प्रायः असली अपराधी पर कोई असर ही पड़ता। वह वैसे ही बना रहता है। फिर सबकुछ या तो रफ़ा-दफ़ा हो जाता है या फिर थक हारकर भुला दिया जाता है । दीर्घ काल से लम्बित कई मामलों में सम्बंधित आरोपी, अभियुक्त और साक्षी मर खप जाते हैं।

पिछले सालों में कई लोमहर्षक वारदातें हुईं और कई मौक़ों पर पूरा देश बड़ा उद्वेलित हुआ था। पर जल्दी ही आम जनता की स्मृति से बात ओझल हो गई और फिर सबकुछ अपनी गति से पुराने ढर्रे पर चलता रहता है। गौरतलब है कि अपराध सिद्ध न होने से अपराधियों को सजा भी बहुत कम मामलों में ही हो पाती है। फिर वे समाज और व्यवस्था में घुल-मिलकर बने रहते हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था की उदारता का लाभ उठाते हुए व्यापार-व्यवसाय और सक्रिय राजनीति में ऐसे अपराधी प्रवृत्ति के लोगों की बढ़ती संख्या और संसाधनों पर उनके अधिकार की वृद्धि। समानता और समता के लक्ष्य हम से दूर होते गए।

वस्तुतः समाज में मुफ़्त या सस्ते की कमाई का आकर्षण दुर्निवार होता है। अनेक क्षेत्रों में नदियों पर बने पुल टूटते रहे और जो हुआ उसके लिए कोई भी तैयार न था। पुल भरभरा कर टूट पड़े थे और धन-जन की अपूरणीय क्षति हुई। आँख मूँद कर ज़्यादा से ज़्यादा और जल्दी से जल्दी रुपया उगाहने की हवस ही ऐसी घटनाओं के पीछे मुख्य कारण रहा है। सस्ते तरीक़ों को अपना कर ज़्यादा पैसा उगाहने के लिए तत्पर उद्योगों का आम जनों के स्वास्थ्य और सुरक्षा से कुछ भी लेना-देना नहीं होता है। त्योहार और पर्व के अवसर पर दूध, पेय-पदार्थ, पनीर, मावा और मिठाई में मिलावट जिस पैमाने पर हो रही है उससे जन-स्वास्थ्य लिए ख़तरा बढ़ता जा रहा है। दूसरी ओर संसद और विधानसभा जैसी पवित्र लोकतांत्रिक स्थल में आपराधिक पृष्ठभूमि वालों की संख्या भी निरंतर बढ़ रही है। उनमें से कइयों पर आपराधिक मामले न्यायालयों में चल रहे हैं। अपराध, धन-बल और राजनीति की तिकड़ी प्रगाढ़ हुई जा रही है। ऊपर से वंशवाद, क्षेत्रवाद और जातिवाद के रोग के साथ सामाजिक रुग्णता एक संक्रामक रोग की तरह देश के हर क्षेत्र में तेजी से पनप रहा है।

जिस तरह से जीवनविरोधी प्रवृत्ति फैल रही है, उससे यही लगता है कि सामाजिक नियंत्रण के उपाय कमजोर हो रहे हैं और उनकी रोकथाम के लिए ज़रूरी इच्छाशक्ति नहीं है। उन्हें लागू करने में वांछित सफलता नहीं मिल पा रही है। उसका परिणाम होता है गाहे-बगाहे जन-जीवन और धन-सम्पदा की अकारण हानि तथा प्रकृति-पर्यावरण का अंधाधुंध दोहन। इस तरह से देश को अपूरणीय क्षति हो रही है। सभी यह जानते हैं कि यह भौतिक सुख के साधन धरे रह जाएंगे परंतु उसके लिए सभी बेतहाशा व्यग्र हैं और क़ानून व्यवस्था तोड़ने पर आमादा रहते हैं। कार्य में कोताही और गुणवत्ता के प्रति उदासीनता हमें पीछे ले जाती है। स्वदेशी तकनीक और आत्मनिर्भर देश के निर्माण के लिए कार्य में कुशलता और ईमानदारी का कोई विकल्प नहीं है। लाभ तो होना चाहिए पर वह अशुभ कदापि न हो। अपने कर्म और प्रतिभा के साथ शुभ लक्ष्मी का सदैव स्वागत है। हमारे भीतर की तामसिक वृत्तियों को छोड़ कर ज्योति का वरण ही देश को प्रगति पथ पर ले जा सकेगा। दीपावली का पर्व इस प्रतिबद्धता के लिए समर्पित करने का अवसर है।

(लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)

DIwali Offer

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button
सुरभि ज्योति की वेडिंग रेडी लुक्स Fan’s मे Viral सुषमा के स्नेहिल सृजन – ज्योति पर्व घर में कौन सी दिशा में मंदिर होना चाहिए Stranger Things Fans के लिए खुशखबरी Stranger Things-5