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कोई बताए कि एक देश एक चुनाव में क्या कमी है


आर.के. सिन्हा

‘एक देश एक चुनाव’ के सपने को साकार करने की तरफ देश बढ़ रहा है। लगातार चुनाव देश की प्रगति में बाधा बन रहे हैं। भारत में ‘एक देश-एक चुनाव’ का विचार ऐसा विषय है जिस पर अलग-अलग लोगों की बंटी हुई राय है। कुछ लोगों का मानना है कि इससे देश को कई फायदे होंगे, वहीं कुछ लोग इसके कुछ नुकसान भी बताते हैं। पर ये सच है कि बार-बार चुनाव कराने में काफी पैसा खर्च होता है। एक साथ चुनाव कराने से इस खर्च को काफी हद तक कम किया जा सकेगा। चुनावों में सरकारी कर्मचारियों और सुरक्षा बलों की भारी संख्या में तैनाती करनी पड़ती है। जाहिर है, बार-बार चुनाव होने से कामकाज में बाधा तो आती ही है, संसाधनों का भारी दुरुपयोग भी होता है। एक साथ चुनाव कराने से इस समस्या को काफी हद तक कम किया जा सकता है।

पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली समिति की सिफारिशों के बाद सरकार एक देश-एक चुनाव की तरफ तेजी से बढ़ रही है। इससे लोकसभा, विधानसभा, नगर निकाय और पंचायत चुनाव सभी एक साथ होंगे। यह सब 100 दिनों के अंदर संपन्न होगा। सरकार का मानना है कि इससे देश की जीडीपी में 1-1.5 प्रतिशत की वृद्धि होगी। केंद्र सरकार इस मुद्दे पर आम सहमति बनाना चाहती है। यह मामला किसी एक दल का नहीं बल्कि पूरे देश के हित में है। यह सबको पता है कि देश में बार-बार चुनाव होने से जनता और सरकारी अधिकारियों का समय और संसाधन बर्बाद होता है। एक साथ चुनाव कराने से यह सब नहीं होगा। एक साथ चुनाव होने से राजनीतिक स्थिरता में सुधार आएगा क्योंकि सरकार को बार-बार चुनावों की चिंता नहीं करनी पड़ेगी। इसके साथ ही एक साथ चुनाव होने से प्रशासन पर दबाव कम होगा और वे अपने काम पर अधिक ध्यान केंद्रित कर पाएंगे। तो आप कह सकते हैं कि ‘एक देश, एक चुनाव’ से कई मसलों का हल हो जाएगा। चुनावों की अवधि कम हो जाने से शासन और विकास कार्यक्रमों पर ध्यान केंद्रित किया जा सकेगा।
एक देश, एक चुनाव भाजपा और नरेन्द्र मोदी का पुराना एजेंडा है। प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही मोदी जी इसकी वकालत करते रहे हैं। अपने दूसरे कार्यकाल में 2 सितंबर 2023 को कोविंद कमिटी बना कर उन्होंने पहला कदम बढ़ाया था। निश्चित रूप से बार-बार चुनाव होने से सरकारें नई नीतियों और योजनाओं को लागू करने में झिझकती हैं। एक साथ चुनाव होने से सरकारों को स्थिरता मिलती है और वे बेहतर ढंग से काम कर पाती हैं। साथ ही बार-बार चुनाव होने से राजनीतिक दल विकास के मुद्दों से भटक जाते हैं और चुनाव जीतने पर ध्यान केंद्रित करते हैं। एक साथ चुनाव होने से राजनीतिक दलों को विकास पर ध्यान केंद्रित करने का अधिक अवसर मिलता है।

‘एक देश-एक चुनाव’ के खिलाफ विपक्षियों की तरफ से कुछ कमजोर तर्क दिए जा रहे हैं। जैसे कि राष्ट्रीय चुनाव के साथ राज्यों के चुनाव होने से क्षेत्रीय दलों को राष्ट्रीय दलों के साथ प्रतिस्पर्धा करने में कठिनाई हो सकती है। कुछ लोगों का मानना है कि एक साथ चुनाव कराने से लोकतंत्र कमजोर हो सकता है क्योंकि इससे राष्ट्रीय स्तर पर एक ही राजनीतिक दल का दबदबा हो सकता है। यह सब तर्क कमजोर हैं। दुनिया के कई देशों में अलग-अलग चुनाव व्यवस्थाएं हैं। कुछ देशों में एक साथ चुनाव होते हैं, जबकि कुछ देशों में अलग-अलग समय पर चुनाव होते हैं। स्वीडन, बेल्जियम और दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों में राष्ट्रीय और स्थानीय चुनाव एक साथ कराए जाते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में राष्ट्रीय और स्थानीय चुनाव अलग-अलग समय पर होते हैं।

बहरहाल, एक देश-एक चुनाव से देश के जनमानस में राष्ट्र की अवधारणा सशक्त होगी। भारत में साल 1967 तक लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिए चुनाव एक साथ ही होते थे। साल 1947 में आज़ादी के बाद भारत में नए संविधान के तहत देश में पहला आम चुनाव साल 1952 में हुआ था। उस समय राज्य विधानसभाओं के लिए भी चुनाव साथ ही कराए गए थे, क्योंकि आज़ादी के बाद विधानसभा के लिए भी पहली बार चुनाव हो रहे थे। उसके बाद साल 1957, 1962 और 1967 में भी लोकसभा और विधानसभा के चुनाव साथ ही हुए थे। यह सिलसिला पहली बार उस समय टूटा था जब केरल में साल 1957 के चुनाव में ईएमएस नंबूदरीबाद की वामपंथी सरकार बनी। साल 1967 के बाद कुछ राज्यों की विधानसभा जल्दी भंग हो गई और वहां राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया, इसके अलावा साल 1972 में होनेवाले लोकसभा चुनाव भी समय से पहले कराए गए थे। साल 1967 के चुनाव में कांग्रेस को कई राज्यों में विधानसभा चुनावों में हार का सामना करना पड़ा था। बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, पश्चिम बंगाल और ओडिशा जैसे कई राज्यों में विरोधी दलों या गठबंधन की सरकार बनी थी। इनमें से कई सरकारें अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाईं और विधानसभा समय से पहले भंग हो गई थी।

यह भी माना जा रहा है कि एक साथ चुनाव होने से मतदाता भागीदारी में वृद्धि हो सकती है क्योंकि लोगों को बार-बार मतदान करने की आवश्यकता नहीं होगी। कुल मिलाकर बात यह है कि ‘एक देश एक चुनाव’ को दलगत आधार पर नहीं देखा जाना चाहिए। इस पर हर स्तर पर खुल कर और ईमानदारी से चर्चा होनी चाहिए। उसके बाद ही किसी अंतिम निर्णय पर पहुंचा जाना चाहिए। अगर इसे भाजपा या मोदी जी के किसी एजेंडे के रूप में देखा गया तो यह सही नहीं होगा। अभी तक जो विपक्षी नेता ‘एक देश एक चुनाव’ के विचार का विरोध कर रहे हैं, उन्हें अपने दिल पर हाथ रखकर पूछना चाहिए कि क्या उन्हें बार-बार चुनावी रणभूमि में उतरना पसंद है?

(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)

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