
फिल्म निर्माताओं के लिए थिएटर में बैठे दर्शकों की प्रतिक्रियाओं को प्रत्यक्ष अनुभव करना किसी पुरस्कार से कम नहीं होता। खासतौर पर भारत में, जहां हॉरर फिल्मों के लिए दर्शकों की भूख लगातार बढ़ रही है। जबकि भट्ट कैंप ने इस शैली में कुछ ठीक-ठाक और औसत दर्जे की फिल्में दीं, मैडॉक फिल्म्स ने कॉमेडी के साथ हॉरर को मिलाकर एक अनोखा अलौकिक मल्टीवर्स रचा जिसने दर्शकों का ध्यान खींचा। उसी राह को अब अजय देवगन और ज्योति देशपांडे ने ‘शैतान’ जैसी फिल्म के बाद एक कदम और आगे बढ़ाते हुए ‘माँ’ के साथ अपनाया है। जहां ‘शैतान’ में अजय देवगन ने ‘बाप का दम’ दिखाया, वहीं ‘माँ’ में काजोल मातृत्व की शक्ति का ऐसा चित्रण करती हैं जो लंबे समय तक दर्शकों के मन में रहेगा। यह फिल्म हॉरर सिनेमा का एक बेहतरीन उदाहरण है – बिना फिजूल ड्रामा, सीधे-सादे डर के साथ।
फिल्म की शुरुआत होती है अंबिका (काजोल) और उसके परिवार से, जो भले ही शहर में रहते हैं, लेकिन उनकी जड़ें एक ऐसे गांव चंद्रपुर से जुड़ी हैं, जो एक रहस्यमय अभिशाप से ग्रस्त है। शुरुआत में निर्देशक सिर्फ संकेत देते हैं, लेकिन जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है, रहस्य परत-दर-परत खुलते हैं। अंबिका के पति शुवांकर (इंद्रनील सेनगुप्ता) गांव क्यों नहीं जाते और उन्होंने अपनी बेटी श्वेता (खेरिन शर्मा) को सच क्यों नहीं बताया – ये बातें धीरे-धीरे सामने आती हैं। एक पारिवारिक आपात स्थिति शुवांकर को चंद्रपुर जाने पर मजबूर करती है, लेकिन जब वह वापस नहीं लौटते, तो अंबिका अपनी बेटी को साथ लेकर खुद गांव जाती है — जहां वह अपने जीवन के सबसे भयानक अनुभव से गुजरती है।
फिल्म का दूसरा भाग पूरी तरह काजोल के अभिनय के इर्द-गिर्द घूमता है। अंबिका के रूप में वह बेहद असरदार हैं — एक पत्नी का दर्द और एक माँ की दृढ़ता को उन्होंने बखूबी उभारा है। फिल्म का हर दृश्य एक बड़े क्लाइमेक्स की ओर ले जाता है और अंत में किया गया खुलासा दर्शकों को स्तब्ध कर देता है। हॉरर तत्व इतने सशक्त हैं कि यह फिल्म थिएटर में देखे जाने का अनुभव चाहती है। ओटीटी प्लेटफॉर्म इसे न्याय नहीं दे पाएंगे।
साईविन क्वाड्रास की लेखनी फिल्म की रीढ़ है। ‘दैत्य उर्फ अम्सजा’ जैसे काल्पनिक किरदार को पौराणिक रक्तबीज और देवी काली-दुर्गा की अवधारणाओं से जोड़ना शानदार है। संवाद लेखन भी प्रभावशाली है – खासकर अजीत जगताप और आमिल कीन खान की कलम से निकले संवाद। निर्देशक विशाल फुरिया ने ‘छोरी 2’ के बाद इस बार ज्यादा सधा हुआ काम किया है। फिल्म में धार्मिक प्रतीकों, रंगों (विशेषकर लाल) और काली पूजा के दृश्य को बेहद प्रभावशाली ढंग से दर्शाया गया है। हालांकि, कुछ दृश्य जहां वीएफएक्स कमजोर हैं, वहां भी लेखन और भावनात्मक गहराई उसे संभाल लेते हैं।
काजोल फिल्म की आत्मा हैं, हर फ्रेम में वह दमदार हैं। उनका प्रदर्शन बहुआयामी है – एक भयभीत माँ, एक मजबूत योद्धा और एक समझदार इंसान। रोनित रॉय ने भी शानदार काम किया है। शुरू में उनकी बंगाली मिश्रित हिंदी थोड़ी असहज लग सकती है, लेकिन अभिनय में उनका संतुलन शानदार है। इंद्रनील सेनगुप्ता ने कम समय में भी प्रभाव छोड़ा, वहीं सुरज्यशिखा दास और रूपकथा चक्रवर्ती जैसे कलाकार भी अपने किरदारों में सटीक हैं। हालांकि, खेरिन शर्मा (श्वेता के रूप में) की कास्टिंग थोड़ी कमजोर रही। उनका एकसमान तनावभरा चेहरा किरदार में गहराई लाने की बजाय बोरियत पैदा करता है। उनके किरदार में कोई ग्राफ नहीं है, जिससे दर्शक जुड़ नहीं पाते।
आखिर कैसी है फिल्म
‘मां’ एक संपूर्ण सिनेमाई अनुभव है- डर, भावना और पौराणिकता का समृद्ध संगम। यह फिल्म हॉरर प्रेमियों के लिए एक ट्रीट है। निर्देशन, लेखन और अभिनय का मिला-जुला असर इसे एक यादगार फिल्म बनाता है। अगर आप थ्रिल, हॉरर और गहराई से भरी कहानियों के शौकीन हैं, तो ‘माँ’ को सिनेमाघर में जरूर देखिए – यह अनुभव आपको निराश नहीं करेगा