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महात्मा गांधी का पुण्य स्मरण 


गिरीश्वर मिश्र

बापू की स्मृति सात्विक मूल्यों के लिए सतत संघर्ष की याद दिलाती है। सत्य, अहिंसा, अस्तेय (चोरी न करना), अपरिग्रह (जरूरत से ज्यादा धन-सम्पदा न रखना), प्राकृतिक संसाधनों का दोहन न करना, शारीरिक श्रम, आपसी सौहार्द बनाए रखना गांधी जी के जीवन सूत्र थे। इनको लेकर वे निजी सामाजिक जीवन में खुद चलते थे और अपने साथ के लोगों को उनको अपनाने के लिए कहते थे। उनकी संगति में बहुतेरों ने अपने लिए स्वदेशी विचार-व्यवहार को अपनाया भी। गांधी जी के प्रभाव में खादी और चरखा घर-घर प्रचलित हुआ। स्वावलंबन के लिए सबने व्रत लिया। विकेंद्रीकृत और प्रजातांत्रिक तरीके से स्थानीय स्तर पर सामाजिक जीवन चलाने के कई सफल प्रयोग भी उन्होंने किए। स्थानीय और वैश्विक के अंतर्सबंधों को मानवीय स्तर पर समझने की उनकी कोशिश अनोखी थी। सीधा-सादा, सच्चा और लोक की रक्षा को समर्पित उनकी नीति स्वभाव में समावेशी थी । उन्होंने एक मानवीय राजनीतिक संस्कृति का सूत्रपात किया और साहस के साथ उसे अपनाया। जीवन भर गांधी जी प्रयोग करते रहे और स्वयं को परखते रहे। उनके लिए ‘सर्व’ का कल्याण उचित अनुचित तय करने की कसौटी थी। इस तरह की सोच समय से आगे थी और स्वतंत्र भारत के कर्णधारों को कदाचित बहुत प्रिय नहीं थी इसलिए उसका हाशियाकरण उनके जीते जी ही शुरू हो गया था जिसे वह प्रकट भी कर रहे थे। स्वतंत्र भारत में मनाए गए पहले और अंतिम जन्म दिवस पर दो अक्तूबर 1947 को उन्होंने बड़े दुखी मन से अपनी मृत्यु की कामना की थी। कुछ महीनों बाद ही 1948 की जनवरी में उनके आकस्मिक और मर्मांतक दैहिक अवसान से देश के सम्मुख कई प्रश्न खड़े हुए। उनके विचार जीवित हैं और उनको स्मरण भी किया जाता है परंतु अब अनुष्ठान अधिक हैं और वास्तविकता के धरातल पर उनको उतारना बेहद मुश्किल हो रहा है। अब तो कई नेता देश की प्राथमिकता को दांव पर लगाने में भी लोग नहीं चूकते।

अपने मूल सैद्धांतिक स्वभाव से राजनीति जनार्दन की जनता की सेवा के लिए है और सरकार का दायित्व और काम मुख्यतः जनता की सुख-सुविधा की व्यवस्था को सुनिश्चित करना और उनके लक्ष्यों को पाने में मदद करना है। इस दृष्टि से नेतागिरी समाज को समर्पित जनसेवा का उपक्रम हो जाता है। सच्चाई और ईमानदारी देश के निर्माण और प्रगति का आधार होता है। यह दुखद सच्चाई है कि बदलते दौर में अब भारत की राजनीतिक पार्टियां देश सेवा से विराट हो कर व्यापार और उद्योग धंधे का रूप लेती जा रही हैं। अब इन पार्टियों के चुनाव प्रचार का नजारा वोट की फसल खरीदने के लिए बोली लगाने जैसा होता जा रहा है। चुनाव में भाग लेने वाली एक पार्टी हिसाब लगा कर वोट बेंचने के लिए मतदाताओं तक पहुंच कर उसको खरीदने का सौदा करती है। यह कहते हुए वैध या पात्र मतदाता का पंजीकरण किया जाता है और आश्वस्त किया जाता है कि अगर उनकी सरकार बनी तो उसे कुछ हज़ार रूपये ज़रूर दिए जाएंगे । इस तरह के अवैध और अनर्गल प्रयास यही साबित करते हैं कि छद्म, छल और कपट से वोट को खरीदना और बटोरना धोखेदार राजनेताओं की पसंदीदा शैली होती जा रही है। ऐसे में राजनीतिज्ञों की बिरादरी की साख तेजी से घट रही है और उन पर आम जनों का भरोसा घटता जा रहा है।

अब मंच, रैली और फोन आदि भिन्न-भिन्न तरीकों से मतदाताओं तक अधिकाधिक पहुंच बनाई जाती है। घर-घर चलते घनघोर प्रचार के साथ वादा, संकल्पों और गारंटियों के एक से एक तोहफों की घोषणाओं की भरमार होती है। पानी, बिजली, शिक्षा, स्वास्थ्य, धर्माटन आदि को लेकर मुफ्त सुविधाओं की बरसात किश्तों में हो रही है। हर पार्टी दूसरी पार्टी से बढ़चढ़ कर दावे ठोंक रही है। जहां तक पुराने अधूरे वादों का सवाल है और अपनी असफलता का सवाल है उसका ठीकरा विपक्षी दल पर फोड़ना आम बात है। पार्टियां मतदाता को लुभाने और घेर कर अपने पक्ष में करने के सभी जुगाड़ लगा रही हैं। समानता और समता की दुहाई देने वाली पार्टियां जाति, धर्म और क्षेत्र का खुले आम फायदा उठा रही हैं। नागरिक सुविधाओं की कमी और अव्यवस्था से जूझ रहे मध्य वर्ग के लोगों को राजनैतिक पार्टियों के वादे कुछ राहत देने वाले लगते हैं तो गरीब और पिछड़े वर्ग के लोगों को बेहद प्रलोभित करने वाले होते हैं। उनको सम्मान राशि में रुपयों पैसों को लेकर तात्कालिक फायदा दिखता है और भोली भाली जनता उसी के हिसाब से वोट डालने के लिए अपना मन बनाती और बिगाड़ती रहती है। कोई राजनेता यह नहीं बताता कि इन वादों और गारंटियों की अनंत सूची के लिए धन कहां से आएगा और इसकी प्रक्रिया क्या होगी।

राजनैतिक विचारधारा से लगाव अब कोई मायने नहीं रखता। समाज, देश और मानवता आदि के व्यापक सरोकार वाली सोच अब पूरी तरह से हाशिए पर पहुंचती दिख रही है। साथ ही चर्चाओं में भी नैतिकता के जरूरी मानक की चेतना जाती रही। सार्वजनिक मंच राजनैतिक वाद-विवाद में होने वाली चर्चाएँ हास्यास्पद रूप से चरित्र-हनन पर केंद्रित होती जा रही हैं। सभी एक दूसरे पर कीचड़ उछलते हैं और विगत इतिहास के पन्नों से उदाहरण निकाल-निकाल कर एक दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं। पर कौन छोटा है और कौन बड़ा यह कहना मुश्किल होता है क्योंकि सभी दलों के इतिहास ऐसी घटनाओं से भरे पड़े होते हैं और वर्तमान में बड़ी समानताएं दिखती हैं। उदाहरण के लिए अपराध की पृष्ठभूमि यानी दागी नेता लोगों को प्रश्रय देने की मजबूरी कमोबेश सभी दलों में दिखती है। उनकी पात्रता को लेकर संदेह होने पर भी उनसे भय के कारण मौका दिया जाता है। अनेक नेता लाज शर्म छोड़ अपने धन-दौलत की बदौलत पार्टियों से टिकट पाने में सफल हो जाते हैं और फिर जीतने के बाद धन-उगाही ही उनका राजनीतिक कर्म हो जाता है। अनेक पूर्व गरीब और वर्तमान में बने क्षेत्रीय और राष्ट्रीय राजनेताओं के पास अथाह धन-सम्पत्ति जिस तरह एकत्र होती दिखती है वह छुपा नहीं है। चुनाव में प्रत्याशियों की सूची देखें तो लगता है करोड़पति अरबपति होना अब राजनीति में प्रवेश लेने की शर्त होने लगी है। आर्थिक जगत में इतने तरह के घोटाले होते रहे हैं कि लोगों का राजनीति और राजनेता से भरोसा उठता जा रहा है।

आज राजनैतिक परिवेश दारुण और पीड़ादायी हो रहा है। सत्ता और शक्ति का नशा गहराता जा रहा है। ऐसे में विकसित भारत के लक्ष्य के लिए शुचिता की शर्त याद रखनी होगी। चरित्र का निर्माण और मूल्यों की प्रतिष्ठा का कोई विकल्प नहीं है। महात्मा गांधी औपनिवेशिक सता के प्रतिरोध और हिंद-स्वराज की स्थापना का स्वप्न चरितार्थ कर सके थे। मनुष्य के रूप में दुर्बल काया परंतु दृढ़ आत्मबल से उन्होंने जो उद्यम किया वह मनुष्य की उदात्त और ऊर्ध्वमुखी यात्रा का अविकल प्रमाण है। असम्भव संभावना को संभव करते महात्मा गांधी आज भी अविश्वसनीय रूप से स्पृहणीय और प्रेरक हैं। मनुष्य के कर्तृत्व की शक्ति का कोई विकल्प नहीं है। पर इसके लिए विचार और कर्म के बीच की दूरी जो बढ़ती जा रही है उसे कम करना होगा। आत्म-परिष्कार और अपने अहं से परे जाने और सर्व को प्रतिष्ठित करने के लिए हमें अपने स्वार्थों का अतिक्रमण करना होगा।

(लेखक,महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)

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