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– योगेश कुमार गोयल
उत्तर भारत में मनाया जाने वाला प्रमुख पर्व है लोहड़ी। पंजाब, हरियाणा तथा हिमाचल प्रदेश में खासतौर से पंजाबी समुदाय में तो इस पर्व पर एक अलग ही उत्साह देखा जाता है। यह ऐसा त्यौहार है, जो आधुनिक युग के व्यस्तता भरे माहौल में सुकून भरे कुछ पल लेकर आता है और लोग सारी व्यस्तताएं भूलकर भरपूर जोश और उल्लास के साथ इस पर्व का भरपूर आनंद लेते हैं।
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पंजाब तथा जम्मू कश्मीर में तो लोहड़ी पर्व मकर संक्रांति के रूप में ही मनाया जाता है। सिंधी समाज में भी मकर संक्रांति से एक दिन पहले लोहड़ी के रूप में ‘लाल लाही’ नामक पर्व मनाया जाता है। लोहड़ी को लेकर कुछ लोककथाएं भी प्रचलित हैं। मान्यता है कि कंस ने इसी दिन लोहिता नामक एक राक्षसी को श्रीकृष्ण का वध करने के लिए भेजा था, जिसे श्रीकृष्ण ने खेल-खेल में ही मार डाला था और उसी घटना की स्मृति में यह पर्व मनाया जाने लगा। लोहड़ी पर अग्नि प्रज्जवलित करने के संबंध में एक लोककथा यह भी है कि दक्ष प्रजापति की पुत्री सती के योगाग्नि दहन की स्मृति में ही इस दिन अग्नि प्रज्जवलित की जाती है। लोहड़ी को लेकर सर्वाधिक प्रचलित कथा दुल्ला भट्टी नामक डाकू से संबंधित रही है, जिसे ‘पंजाबी रॉबिनहुड’ का दर्जा प्राप्त है।
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जिस प्रकार होली जलाई जाती है, ठीक उसी प्रकार लकडि़यां एकत्रित कर लोहड़ी के अवसर पर अलाव जलाये जाते हैं और अग्नि का तिलों से पूजन किया जाता है। जिस दिन यह पर्व मनाया जाता है, उस दिन कड़ाके की ठंड होती है और उत्तर भारत में अधिकांश जगहों पर घने कोहरे के बीच तापमान प्रायः शून्य से पांच डिग्री के बीच होता है लेकिन इतनी ठंड के बावजूद इस पर्व के प्रति लोगों का उत्साह देखते बनता है। लोहड़ी के पावन अवसर पर लोग घरों के बाहर अलाव जलाकर यह पर्व धूमधाम से मनाते हैं। इस पर्व का संबंध उस उत्सव से भी माना गया है, जिसमें सर्दी को अलविदा कहते हुए सूर्यदेव का आह्वान करते हुए कहा जाता है कि वह इस माह अपनी किरणों से पृथ्वी को इतना गर्म कर दे कि ठंड से किसी को कोई नुकसान न पहुंचे और लोग आसानी से सर्दी के मौसम का मुकाबला कर सकें। माना जाता है कि इसी दिन से सर्दी कम होने लगती है। लोग अपने घरों के बाहर अलाव जलाकर ठंड से बचाव करने के साथ-साथ अग्नि की पूजा भी करते हैं ताकि उनके घर में अग्निदेव की कृपा से सुख-समृद्धि का साम्राज्य स्थापित हो सके।
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हरियाणा व पंजाब में जिस घर में नई शादी हुई हो अथवा संतान (लड़के) का जन्म हुआ हो या शादी की पहली वर्षगांठ का मौका हो, ऐसे परिवारों में लोहड़ी का विशेष महत्व होता है। इन परिवारों में लोहड़ी के अवसर पर उत्सव जैसा माहौल होता है। आसपास के लोगों के अलावा रिश्तेदार भी इस उत्सव में सम्मिलित होते हैं। घर में अथवा घर के बाहर खुले स्थान पर अग्नि जलाकर लोग उसके इर्द-गिर्द इकट्ठे होकर आग सेंकते हुए अग्नि में मूंगफली, गुड़, तिल, रेवड़ी, मक्का के भुने हुए दानों इत्यादि की आहूति देते हैं और रातभर भंगड़ा, गिद्धा करते हुए मनोरंजन करते हैं तथा बधाई देते हैं।
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लोहड़ी का संबंध सुन्दरी नामक एक ब्राह्मण कन्या और दुल्ला भट्टी नामक कुख्यात डाकू से जोड़कर देखा जाता रहा है। दुल्ला भट्टी अमीरों का धन लूटकर निर्धनों में बांट दिया करता था। कहा जाता है कि गंजीबार क्षेत्र, जो इस समय पाकिस्तान में है, में एक ब्राह्मण रहता था, जिसकी सुन्दरी नामक एक बहुत खूबसूरत बेटी थी, जो इतनी खूबसूरत थी कि उसके सौन्दर्य की चर्चा गली-गली में होने लगी थी। जब उसके बारे में गंजीबार के राजा को पता चला तो उसने ठान लिया कि वह सुन्दरी को अपने हरम की शोभा बनाएगा। तब उसने सुन्दरी के पिता को संदेश भेजा कि वह अपनी बेटी को उसके हरम में भेज दे। इसके लिए ब्राह्मण को तरह-तरह के प्रलोभन भी दिए मगर ब्राह्मण अपनी बेटी को राजा की रखैल नहीं बनाना जाता था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? जब उसे कुछ नहीं सूझा तो उसे जंगल में रहने वाले कुख्यात डाकू दुल्ला भट्टी का ख्याल आया, जो गरीबों व शोषितों की मदद करने के लिए हमेशा तत्पर रहता था। घबराया ब्राह्मण अपनी बेटी सुन्दरी को लेकर उसी रात उसके पास पहुंचा और विस्तार से सारी बात बताई। दुल्ला भट्टी ने ब्राह्मण की व्यथा सुन उसे सांत्वना दी और रात को ही एक योग्य ब्राह्मण लड़के की तलाश कर सुन्दरी को अपनी ही बेटी मानकर उसका कन्यादान अपने हाथों से करते हुए उस युवक के साथ सुन्दरी का विवाह कर दिया।
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गंजीबार के राजा को इसकी जानकारी मिली तो वह बौखला उठा। उसके आदेश पर उसकी सेना ने दुल्ला भट्टी के ठिकाने पर धावा बोल दिया किन्तु दुल्ला भट्टी और उसके साथियों ने राजा को बुरी तरह धूल चटा दी। दुल्ला भट्टी के हाथों गंजीबार के शासक की हार होने की खुशी में गंजीबार में लोगों ने अलाव जलाए और दुल्ला भट्टी की प्रशंसा में गीत गाकर भंगड़ा डाला। कहा जाता है कि तभी से लोहड़ी के अवसर पर गाए जाने वाले गीतों में सुन्दरी व दुल्ला भट्टी को विशेष तौर पर याद किया जाने लगा।
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लोहड़ी से पहले ही बच्चे इकट्ठे होकर लोहड़ी के गीत गाते हुए घर-घर जाकर लोहड़ी मांगने लगते हैं। इस दिन उत्सव के लिए लकडि़यां व उपले एकत्र करने के लिए भी बच्चे कई दिन पहले ही जुट जाते हैं। वैसे समय बीतने के साथ-साथ अब घर-घर से लकडि़यां मांगकर लाने की परम्परा समाप्त होती जा रही है। बहुत से स्थानों पर लोग अब लकडि़यां व उपले बच्चों के जरिये मांग-मांगकर एकत्र कराने के बजाय खरीदने लगे हैं।
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लोहड़ी के दिन सुबह से ही रात के उत्सव की तैयारियां आरंभ हो जाती हैं और रात के समय लोग अपने-अपने घरों के बाहर अलाव जलाकर उसकी परिक्रमा करते हुए उसमें तिल, गुड़, रेवड़ी, चिड़वा, पॉपकॉर्न इत्यादि डालते हैं और माथा टेकते हैं। उसके बाद अलाव के चारों ओर बैठकर आग सेंकते हैं। तब शुरू होता है गिद्दा और भंगड़ा का मनोहारी कार्यक्रम, जो रात्रि में देर तक चलता है और कहीं-कहीं तो पूरी-पूरी रात भी चलता है। अगले दिन प्रातः अलाव ठंडा होने पर मौहल्ले के सभी लोग इसकी राख को ‘ईश्वर का उपहार’ मानते हुए अपने-अपने घर ले जाते हैं। यह पर्व सही मायने में समाज में प्रेम व भाईचारे की अनूठी मिसाल कायम करता है।
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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