लेख

ऋतूनां कुसुमाकरः स्वागत ऋतुराज, वसंत सृजन का आधार

वसंत पंचमी पर विशेष

आचार्य संजय तिवारी

बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम् । मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकर: ॥- श्रीमद्भगवद्गीता के दसवे अध्याय का पैंतीसवां श्लोक। भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, जो ऋतुओं में कुसुमाकर अर्थात वसंत है, वह मैं ही तो हूँ। यही कुसुमाकर तो प्रिय विषय है सृजन का। यही कुसुमाकर मौसम है कुसुम के एक-एक दल के पल्लवित होने का। अमराइयों में मंजरियों के रससिक्त होकर महकने और मधुमय पराग लिए उड़ाते भौरों के गुनगुना उठाने की ऋतु है वसंत। प्रकृति के श्रृंगार की ऋतु।

वसंत को सृजन का आधार बताया गया है। सृष्टि के दर्शन का सिद्धान्त बन कर कुसुमाकर ही स्थापित होता है। यही कारण है कि सीजन और काव्य के मूल में तत्व के रूप में इसकी स्थापना दी गयी है। सृष्टि की आदि श्रुति ऋग्वेद की अनेक ऋचाओं में रचनाओं से लेकर वर्तमान साहित्यकारों ने भी अपनी सौंदर्य-चेतना के प्रस्फुटन के लिए प्रकृति की ही शरण ली है। शस्य श्यामला धरती में सरसों का स्वर्णिम सौंदर्य, कोकिल के मधुर गुंजन से झूमती सघन अमराइयों में गुनगुनाते भौरों पर थिरकती सूर्य की रशिमयां, कामदेव की ऋतुराज ‘बसंत’ का सजीव रूप कवियों की उदात्त कल्पना से मुखरित हो उठता है।

उपनिषद, पुराण-महाभारत, रामायण (संस्कृत) के अतिरिक्त हिन्दी, प्राकृत, अपभ्रंश की काव्य धारा में भी बसंत का रस भलीभांति व्याप्त रहा है। अर्थवेद के पृथ्वीसूत्र में भी बसंत का व्यापक वर्णन मिलता है। महर्षि वाल्मीकि ने भी बसंत का व्यापक वर्णन किया है। किष्किंधा कांड में पम्पा सरोवर तट इसका उल्लेख मिलता है- अयं वसन्त: सौ मित्रे नाना विहग नन्दिता। बुध्दचरित में भी बसंत ऋतु का जीवंत वर्णन मिलता है। भारवि के किरातार्जुनीयम, शिशुपाल वध, नैषध चरित, रत्नाकर कृत हरिविजय, श्रीकंठ चरित, विक्रमांक देव चरित, श्रृंगार शतकम, गीतगोविन्दम्, कादम्बरी, रत्नावली, मालतीमाधव और प्रसाद की कामायनी में बसंत को महत्त्वपूर्ण मानकर इसका सजीव वर्णन किया गया है।

कालिदास ने बसंत के वर्णन के बिना अपनी किसी भी रचना को नहीं छोड़ा है। मेघदूत में यक्षप्रिया के पदों के आघात से फूट उठने वाले अशोक और मुख मदिरा से खिलने वाले वकुल के द्वारा कवि बसंत का स्मरण करता है। कवि को बसंत में सब कुछ सुन्दर लगता है। कालिदास ने ‘ऋतु संहार’ में बसंत के आगमन का सजीव वर्णन किया है:- द्रुमा सपुष्पा: सलिलं सपदमंस्त्रीय: पवन: सुगंधि:। सुखा प्रदोषा: दिवासश्च रम्या:सर्वप्रियं चारुतरे वतन्ते॥ यानी बसंत में जिनकी बन आती है उनमें भ्रमर और मधुमक्खियाँ भी हैं। ‘कुमारसंभवम्’ में कवि ने भगवान शिव और पार्वती को भी नहीं छोड़ा है। कालिदास बसंत को शृंगार दीक्षा गुरु की संज्ञा भी देते हैं:- प्रफूल्ला चूतांकुर तीक्ष्ण शयको,द्विरेक माला विलसद धर्नुगुण: मनंति भेत्तु सूरत प्रसिंगानां,वसंत योध्दा समुपागत: प्रिये। वृक्षों में फूल आ गये हैं, जलाशयों में कमल खिल उठे हैं, स्त्रियाँ सकाम हो उठी हैं, पवन सुगंधित हो उठी है, रातें सुखद हो गयी हैं और दिन मनोरम, ओ प्रिये! बसंत में सब कुछ पहले से और सुखद हो उठा है।

हरिवंश, विष्णु तथा भागवत पुराणों में बसंतोत्सव का वर्णन है। माघ ने ‘शिशुपाल वध’ में नये पत्तों वाले पलाश वृक्षों तथा पराग रस से परिपूर्ण कमलों वाली तथा पुष्प समूहों से सुगंधित बसंत ऋतु का अत्यंत मनोहारी शब्दों वर्णन किया है। नव पलाश पलाशवनं पुर: स्फुट पराग परागत पंवानम् मृदुलावांत लतांत मलोकयत् स सुरभि-सुरभि सुमनोमरै: प्रियतम के बिना बसंत का आगमन अत्यंत त्रासदायक होता है। विरह-दग्ध हृदय में बसंत में खिलते पलाश के फूल अत्यंत कुटिल मालूम होते हैं तथा गुलाब की खिलती पंखुड़ियाँ विरह-वेदना के संताप को और अधिक बढ़ा देती हैं।

महाकवि विद्यापति कहते हैं – मलय पवन बह, बसंत विजय कह,भ्रमर करई रोल, परिमल नहि ओल। ऋतुपति रंग हेला, हृदय रभस मेला।अनंक मंगल मेलि, कामिनि करथु केलि। तरुन तरुनि संड्गे, रहनि खपनि रंड्गे। विद्यापति की वाणी मिथिला की अमराइयों में गूंजी थी। बसंत के आगमन पर प्रकृति की पूर्ण नवयौवना का सुंदर व सजीव चित्र उनकी लेखनी से रेखांकित हुआ है:- आएल रितुपति राज बसंत, छाओल अलिकुल माछवि पंथ। दिनकर किरन भेल पौगड़, केसर कुसुम घएल हेमदंड।

हिन्दी साहित्य का आदिकालीन रास-परम्परा का ‘वीसलदेव रास’ कवि नरपतिनाल्हदेव का अनूठा गौरव ग्रंथ है। इसमें स्वस्थ प्रणय की एक सुंदर प्रेमगाथा गाई गई है। प्राकृतिक वातावरण के प्रभाव से विरह-वेदना में उतार-चढ़ाव होता है। बसंत की छमार शुरू हो गई है, सारी प्रकृति खिल उठी है। रंग-बिरंगा वेष धारण कर सखियाँ आकर राजमती से कहती हैं:- चालऊ सखि!आणो पेयणा जाई,आज दी सई सु काल्हे नहीं। पिउ सो कहेउ संदेसड़ा,हे भौंरा, हे काग। ते धनि विरहै जरि मुई,तेहिक धुंआ हम्ह लाग। विरहिणी विलाप करती हुई कहती है कि हे प्रिय, तुम इतने दिन कहाँ रहे, कहाँ भटक गए? बसंत यूं ही बीत गया, अब वर्षा आ गई है।

आचार्य गोविन्द दास के अनुसार:- विहरत वन सरस बसंत स्याम। जुवती जूथ लीला अभिराम मुकलित सघन नूतन तमाल। जाई जूही चंपक गुलाल पारजात मंदार माल। लपटात मत्त मधुकरन जाल।

जायसी ने बसंत के प्रसंग में मानवीय उल्लास और विलास का वर्णन किया है- फल फूलन्ह सब डार ओढ़ाई। झुंड बंधि कै पंचम गाई। बाजहिं ढोल दुंदुभी भेरी। मादक तूर झांझ चहुं फेरी। नवल बसंत नवल सब वारी। सेंदुर बुम्का होर धमारी।

भक्त कवि कुंभनदान ने बसंत का भावोद्दीपक रूप इस प्रकार प्रस्तुत किया है:- मधुप गुंजारत मिलित सप्त सुर भयो हे हुलास, तन मन सब जंतहि। मुदित रसिक जन उमगि भरे है न पावत, मनमथ सुख अंतहि।

कवि चतुर्भुजदास ने बसंत की शोभा का वर्णन इस प्रकार किया है- फूली द्रुम बेली भांति भांति,नव वसंत सोभा कही न जात। अंग-अंग सुख विलसत सघन कुंज,छिनि-छिनि उपजत आनंद पुंज।

कवि कृष्णदास ने बसंत के माहौल का वर्णन यूं किया है:- प्यारी नवल नव-नव केलि नवल विटप तमाल अरुझी मालती नव वेलि, नवल वसंत विहग कूजत मच्यो ठेला ठेलि।

सूरदास ने पत्र के रूप में बसंत की कल्पना की है:- ऐसो पत्र पटायो ऋतु वसंत, तजहु मान मानिन तुरंत, कागज नवदल अंबुज पात, देति कमल मसि भंवर सुगात।

तुलसीदास के काव्य में बसंत की अमृतसुधा की मनोरम झांकी है:- सब ऋतु ऋतुपति प्रभाऊ, सतत बहै त्रिविध बाऊं जनु बिहार वाटिका, नृप पंच बान की। जनक की वाटिका की शोभा अपार है, वहां राम और लक्ष्मण आते हैं:- भूप बागु वट देखिऊ जाई, जहं बसंत रितु रही लुभाई।

घनांद का प्रेम काव्य-परम्परा के कवियों से सर्वोच्च स्थान पर है। ये स्वच्छंद, उन्मुक्त व विशुध्द प्रेम तथा गहन अनुभूति के कवि हैं। प्रकृति का माधुर्य प्रेम को उद्दीप्त करने में अपनी विशेष विशिष्टता रखता है। कामदेव ने वन की सेना को ही बसंत के समीप लाकर खड़ा कर दिया:- राज रचि अनुराग जचि, सुनिकै घनानंद बांसुरी बाजी। फैले महीप बसंत समीप, मनो करि कानन सैन है साजी। रीतिकालीन कवियों ने जगह-जगह बसंत का सुंदर वर्णन किया है।

आचार्य केशव ने बसंत को दम्पत्ति के यौवन के समान बताया है। जिसमें प्रकृति की सुंदरता का वर्णन है। भंवरा डोलने लगा है, कलियाँ खिलने लगी हैं यानी प्रकृति अपने भरपूर यौवन पर है। आचार्य केशव ने इस कविता में प्रकृति का आलम्बन रूप में वर्णन किया है:- दंपति जोबन रूप जाति लक्षणयुत सखिजन, कोकिल कलित बसंत फूलित फलदलि अलि उपवन।

बिहारी प्रेम के संयोग-पक्ष के चतुर चितेरे हैं। ‘बिहारी सतसई’ उनकी विलक्षण प्रतिभा का परिचायक है। कोयल की कुहू-कुहू तथा आम्र-मंजरियों का मनोरम वर्णन देखिए:- वन वाटनु हपिक वटपदा, ताकि विरहिनु मत नैन। कुहो-कुहो, कहि-कहिं उबे, करि-करि रीते नैन। हिये और सी ले गई, डरी अब छिके नाम। दूजे करि डारी खदी, बौरी-बौरी आम।

‘पद्माकर’ ने गोपियों के माध्यम से श्रीकृष्ण को वसंत का संदेश भेजा है:- पात बिन कीन्हे ऐसी भांति गन बेलिन के, परत न चीन्हे जे थे लरजत लुंज है। कहै पदमाकर बिसासीया बसंत कैसे, ऐसे उत्पात गात गोपिन के भुंज हैं। ऊधो यह सूधो सो संदेसो कहि दीजो भले, हरि सों हमारे हयां न फूले बन कुंज है। ऋतू वर्णन जब करते है तब पद्माकर फिर गाते है – कूलन में केलि में कछारन में कुंजन में क्यारिन में कलिन में कलीन किलकंत है, कहे पद्माकर परागन में पौनहू में पानन में पीक में पलासन पगंत है द्वार में दिसान में दुनी में देस-देसन में देखौ दीप-दीपन में दीपत दिगंत है बीथिन में ब्रज में नवेलिन में बेलिन में बनन में बागन में बगरयो बसंत है कवि ‘देव’ की नायिका बसंत के भय से विहार करने नहीं जाती, क्योंकि बसंत पिया की याद दिलायेगा:- देव कहै बिन कंस बसंत न जाऊं, कहूं घर बैठी रहौ री हूक दिये पिक कूक सुने विष पुंज, निकुंजनी गुंजन भौंरी। सेनापति ने बसंत ऋतु का अलंकार प्रधान करते हुए बसंत के राजा के साथ रूपक संजोया है- बरन-बरन तरू फूल उपवन-वन सोई चतुरंग संग दलि लहियुत है, बंदो जिमि बोलत बिरद वीर कोकिल, गुंजत मधुप गान गुन गहियुत है, ओबे आस-पास पहुपन की सुबास सोई सोंधे के सुगंध मांस सने राहियुत है।

आधुनिक कवियों की लेखनी से भी बसंत अछूता नहीं रहा। रीति काल में तो वसंत कविता के सबसे आवश्यक टेव के रूप में उभर कर स्थापित हुआ है। महादेवी वर्मा की अपनी वेदनायें उदात्त और गरिमामयी हैं- मैं बनी मधुमास आली! आज मधुर विषाद की घिर करुण आई यामिनी, बरस सुधि के इन्दु से छिटकी पुलक की चाँदनी उमड़ आई री, दृगों में सजनि, कालिन्दी निराली! रजत स्वप्नों में उदित अपलक विरल तारावली, जाग सुक-पिक ने अचानक मदिर पंचम तान लीं; बह चली निश्वास की मृदु वात मलय-निकुंज-वाली! सजल रोमों में बिछे है पाँवड़े मधुस्नात से, आज जीवन के निमिष भी दूत है अज्ञात से; क्या न अब प्रिय की बजेगी मुरलिका मधुराग वाली?

मैथिलीशरण गुप्त ने उर्मिला के असाधारण रूप का चित्रण किया है। उर्मिला स्वयं रोदन का पर्याय है। अपने अश्रुओें की वर्षा से वह प्रकृति को हरा-भरा करना चाहती है:- हंसो-हंसो हे शशि फलो-फूलो, हंसो हिंडोरे पर बैठ झूलो। यथेष्ट मैं रोदन के लिए हूं, झड़ी लगा दूं इतना पिये हूं।

जयशंकर प्रसाद तो वसंत से सवाल ही पूछ लेते है- पतझड़ ने जिन वृक्षों के पत्ते भी गिरा दिये थे, उनमें तूने फूल लगा दिये हैं। यह कौन से मंत्र पढ़कर जादू किया है:- रे बसंत रस भने कौन मंत्र पढ़ि दीने तूने कामायानी में जयशंकर प्रसाद ने श्रध्दा को बसंत-दूत के रूप में प्रस्तुत किया है- कौन हो तुम बसंत के दूत? विरस पतझड़ में अति सुकुमार घन तिमिर में चपला की रेख तमन में शीतल मंद बयार।

सुमित्रानंदन पंत के लिए प्रकृति जड़ वस्तु नहीं, सुंदरता की सजीव देवी बन उनकी सहचरी रही:- दो वसुधा का यौवनसार,गूंज उठता है जब मधुमास। विधुर उर कैसे मृदु उद्गार,कुसुम जब खिल पड़ते सोच्छवास। न जाने सौरस के मिस कौन,संदेशा मुझे भेजता मौन।

अज्ञेय ने अपने घुमक्कड़ जीवन में बसंत को भी बहुत करीब से देखा है, अपनी ‘बसंत आया’ कविता शीर्षक में कहा है:- बसंत आया तो है,पर बहुत दबे पांव, यहां शहर में,हमने बसंत की पहचान खो दी है, उसने बसंत की पहचान खो दी है, उसने हमें चौंकाया नहीं। अब कहाँ गया बसंत? मध्य युग में भी बसंत का दृश्य जगत अपने रूप में अधिक मादक हैं।

इस समय जो भी रचनाये हुई उनमे वसंत को खूब जगह दी गयी। इसी भावना से ओतप्रोत होकर शाहआलम विरही प्रेमियों के दुख को इन शब्दों में रेखांकित करते हैं:- प्यारे बिना सखि कहा करूंजबसे रितु नीकी बसंत की आई।

महाकवि सोहनलाल द्विवेदी लिखते हैं – आया वसंत आया वसंत छाई जग में शोभा अनंत। सरसों खेतों में उठी फूल बौरें आमों में उठीं झूल बेलों में फूले नये फूल पल में पतझड़ का हुआ अंत आया वसंत आया वसंत। लेकर सुगंध बह रहा पवन हरियाली छाई है बन बन, सुंदर लगता है घर आँगन है आज मधुर सब दिग दिगंत आया वसंत आया वसंत। भौरे गाते हैं नया गान, कोकिला छेड़ती कुहू तान हैं सब जीवों के सुखी प्राण, इस सुख का हो अब नही अंत घर-घर में छाये नित वसंत।

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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